1857 की क्रांति में जब नेपाल बना था अंग्रेजों का हमदर्द: विद्रोह कुचलने में निभाई थी बड़ी भूमिका

1857 की आज़ादी की पहली चिंगारी जब मेरठ से धधक उठी, तो पूरे हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिल गई थी। मंगल पांडे से लेकर रानी लक्ष्मीबाई और बहादुर शाह ज़फर तक, हर ओर स्वतंत्रता की हुंकार गूंज रही थी। लेकिन इसी बीच भारत का पड़ोसी और आज का मित्र राष्ट्र नेपाल, उस वक्त अंग्रेजों का हमदर्द बनकर सामने आया।

राणा शासक जंग बहादुर ने विद्रोहियों को कुचलने में ब्रिटिश सेना का साथ न सिर्फ दिया, बल्कि गोरखा सैनिकों को भेजकर भारत की आज़ादी की लड़ाई को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई। यही नहीं, नेपाल ने न केवल क्रांतिकारियों को पनाह देने से इनकार किया, बल्कि कईयों को गिरफ्तार कर अंग्रेजों के हवाले भी कर दिया।

परमात्मा उपाध्याय

1857 का वर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे निर्णायक और भावनात्मक अध्याय रहा। चर्बी वाले कारतूसों के विरोध में मेरठ से उठी चिंगारी ने देशभर में आग की लपटें फैला दी थीं। मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, तात्या टोपे और बहादुर शाह जफर जैसे वीरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर आजादी की नींव रखी। लेकिन इसी विद्रोह के दौरान नेपाल ने अंग्रेजों का साथ देकर विद्रोहियों की कमर तोड़ने में अहम भूमिका निभाई।

नेपाल की ‘मैत्री’ बनी क्रांतिकारियों के लिए काल

नेपाल, जो आज भारत का मित्र राष्ट्र माना जाता है, 1857 के उस विद्रोह में ब्रिटिश साम्राज्य का विश्वासपात्र सहयोगी था। उस समय नेपाल पर राणा शासकों का शासन था, और प्रधानमंत्री जंग बहादुर राणा ने अंग्रेजों की खुलकर मदद की। उन्होंने न केवल विद्रोहियों को नेपाल में घुसने से रोका, बल्कि उन्हें पकड़कर अंग्रेजों को सौंप भी दिया।

इसके बदले अंग्रेजों ने 1816 की सुगौली संधि में जो नेपालगंज और कपिलवस्तु के तराई क्षेत्र नेपाल से छीन लिए थे, उन्हें वापस लौटा दिया। इस तरह नेपाल ने भारत की आज़ादी के पहले महासंग्राम में अंग्रेजों की मदद कर एक बड़ी ऐतिहासिक भूमिका निभाई।

गोरखा सैनिकों की मदद से अंग्रेजों ने दोबारा कब्जा जमाया

1857 के दौरान अंग्रेजों ने दिल्ली, कानपुर, अवध और मध्य भारत में विद्रोहियों को परास्त करने के लिए नेपाल की गोरखा सेना का सहारा लिया। दिल्ली पर पुनः कब्जे में गोरखा सैनिकों ने निर्णायक भूमिका निभाई। इसी तरह कानपुर, उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध के कई हिस्सों में भी गोरखों ने अंग्रेजी सेना के साथ मिलकर विद्रोह दबाया।

राजस्थान के कुछ राजा बने थे विद्रोहियों के हमसफर

जहां नेपाल ने अंग्रेजों का साथ दिया, वहीं राजस्थान के जयपुर, जोधपुर और उदयपुर के राजाओं ने क्रांतिकारियों का समर्थन किया। उन्होंने न केवल शरण दी, बल्कि सैन्य और आर्थिक सहायता भी दी। जयपुर के सवाई राम सिंह द्वितीय, जोधपुर के तख्त सिंह और उदयपुर के स्वरूप सिंह विद्रोहियों के समर्थक बने।

ग्रामीण भारत में भी फूटा आक्रोश

1857 की क्रांति सिर्फ सैनिकों की नहीं थी, यह किसानों और आम जनता की भी बगावत थी।

  • अवध: लगान और बेदखली से त्रस्त किसानों ने विद्रोह किया।

  • बिहार: कुंवर सिंह के नेतृत्व में आरा और जगदीशपुर में विद्रोह भड़का।

  • मध्य प्रदेश: राजस्व नीति से त्रस्त किसानों ने आंदोलन छेड़ा।

  • उत्तर प्रदेश: मेरठ, कानपुर, लखनऊ से लेकर जौनपुर और प्रयाग तक विरोध की लहर फैल गई।

  • झांसी और कालपी: रानी लक्ष्मीबाई का परचम लहराया, कालपी और फिर ग्वालियर पर कब्जा किया।

ग्वालियर में लड़ी गई रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम निर्णायक लड़ाई

  • जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर चढ़ाई की।

  • मार्च में शहर घिरा, लेकिन रानी बेटे दामोदर राव के साथ कालपी निकल गईं।

  • 22 मई को करैरा में पराजय, फिर कालपी से ग्वालियर कूच।

  • 2 जून को ग्वालियर का अजेय किला रानी ने जीत लिया।

  • नाना साहेब भी उनसे आ मिले, लेकिन विलंब और आंतरिक शिथिलता से अंग्रेजों को मौका मिला।

  • अंग्रेजों ने जयाजीराव सिंधिया को साथ लेकर फिर हमला किया, और रानी 18 जून को बलिदान देकर अमर हो गईं।

बताते चलें कि 1857 की क्रांति अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला सशस्त्र जनविद्रोह था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने क्रूरता से दबा दिया। इस विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और ब्रिटिश सरकार ने भारत का सीधा प्रशासन अपने हाथ में ले लिया।

जहां भारत के वीरों ने आजादी के लिए बलिदान दिया, वहीं नेपाल जैसे पड़ोसी देश ने अंग्रेजों का साथ देकर उस संघर्ष को कमजोर किया। इतिहास भले नेपाल के इस रुख को कूटनीतिक समझ कहे, लेकिन यह भी सच है कि अगर पड़ोसी समर्थन नहीं देता, तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता।

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