शिक्षा के नाम पर मनमानी: कॉलेजों और स्कूलों की बेलगाम फीस व तानाशाही रवैया

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सिद्धार्थनगर। शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, लेकिन जब यह व्यापार बन जाती है, तो गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाता है। जिले के पथरा बाजार में एक निजी विद्यालय द्वारा महज 1680 रुपये बकाया फीस के कारण तीन बच्चों को परीक्षा देने से रोक देना इसी बेरहम सिस्टम की एक झलक है।

बढ़ती फीस और दबंगई: शिक्षा या शोषण?

आज निजी स्कूल और कॉलेज अपनी मनमानी फीस वसूली के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। “नो फीस, नो एजुकेशन” का उनका नारा अब खुलेआम दिखने लगा है। माता-पिता किस तरह कर्ज लेकर फीस भरते हैं, यह इन संस्थानों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

कई कॉलेजों में एडमिशन के समय छात्रों से हजारों-लाखों रुपये सिर्फ इस नाम पर ऐंठ लिए जाते हैं कि “यह डोनेशन अनिवार्य है।” फिर सालभर कभी परीक्षा फीस, कभी लाइब्रेरी चार्ज, तो कभी मेंटेनेंस के नाम पर पैसे मांगे जाते हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये पैसे जाते कहां हैं?

शिक्षा माफियाओं की दबंगई

जब अभिभावक या छात्र इस तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो उन्हें धमकाया जाता है। सिद्धार्थनगर के इस मामले में भी पीड़ित पिता जब प्रधानाचार्य से मिले, तो उन्हें अपमानित कर भगा दिया गया। यही रवैया जिलेभर के कई स्कूलों और कॉलेजों में देखने को मिलता है।

कई कॉलेज तो फीस भरने में देरी होने पर छात्रों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं, उनके रोल नंबर ब्लॉक कर दिए जाते हैं, या क्लास में बैठने तक नहीं दिया जाता। कुछ मामलों में तो परीक्षा हॉल से बाहर निकाल दिया जाता है, जिससे छात्र का पूरा साल बर्बाद हो जाता है।

जिला प्रशासन कब लेगी एक्शन?

सरकार हर साल “शिक्षा सुधार” की बात करती है, लेकिन निजी शिक्षण संस्थान अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहे। जरूरत है सख्त नियमों और मॉनिटरिंग की, ताकि फीस नियंत्रण किया जा सके और छात्रों को उनके हक की शिक्षा मिल सके।

बताते चलें शिक्षा को धंधा बनाने वालों के खिलाफ कड़ा एक्शन लिया जाना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य व्यापार नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण होना चाहिए!

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