लोक आस्था का महापर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान आज से
👍छठ पर्व व्रत करने वाली महिलाओं को होती है पुत्र रत्न की प्राप्ति
👍महिलाओं के अलावा पुरूष भी पूरी निष्ठा के साथ करते हैं व्रत
सिद्धार्थनगर। लोक आस्था का महापर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान आज से नहाय खाय के साथ प्रारम्भ हो रहा है। इस महापर्व में छठी मैया के साथ भगवान भास्कर (सूर्य देव) की आराधना जरूर की जाती है। कार्तिक माह की षष्ठी को डूबते हुए सूर्य और सप्तमी को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा है।
आपको बता दें कि बिना डाला या सूप पर अर्घ्य दिए छठ पूजा पूरी नही होती है। शाम को अर्घ्य जो गंगा जल के साथ देने का प्रचलन है, जबकि सुबह के समय गाय के दूध से अर्घ्य दिया जाता है।
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुवात कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रत धारी लगातार छत्तीस घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नही करते हैं। पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की साफ-सफाई कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठ व्रती महिलाएं स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुवात करती है।
घर के सभी सदस्य व्रती के भोजन उपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू, चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी की व्रत धारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे खरना कहा जाता है।
खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगो को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है, प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रो में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लडुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पुरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठ व्रती एक नियत तालाब या नदी के तट पर इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान सम्पन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है, तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है।
दौरान कुछ घण्टे के लिये मेले का दृश्य बन जाता है। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं, जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है, अंत मे व्रती कच्चे दूध का शर्बत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं। छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है। जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है, किंतु कुछ पुरूष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है, भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाये गए कमरे में व्रती फर्स पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं, पर्व व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं। जिनमे किसी प्रकार की सिलाई नहीं होती है।
महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहन कर छठ करते हैं। शुरु करने बाद छठ पर्व को सालों साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी को किसी विवाहित महिला जो इसके लिए तैयार न कर लिया जाय। घर मे किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व निहि मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती है। किंतु पुरूष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।