सिद्धार्थनगर धार्मिक शिक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए विख्यात अल्फारूक इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल मौलाना शब्बीर अहमद की गिरफ्तारी एक बार फिर प्रशासनिक कार्यशैली और व्यक्तिगत रंजिश के असर पर सवाल खड़े कर रही है।
विवाद का मूल वर्ष 2021 का बताया जा रहा है, जब शिकायतकर्ता अखंड प्रताप सिंह ने उक्त कॉलेज में नौकरी के लिए आवेदन किया था। शिकायत के अनुसार, उन्हें नौकरी नहीं दी गई। चार साल तक शांत रहने के बाद अब अचानक उन्होंने एक तहरीर देकर मौलाना पर धर्मांतरण का आरोप लगा दिया, जिसके आधार पर मौलाना को गिरफ्तार कर लिया गया।
मामले की संवेदनशीलता और संदिग्धता
सवाल यह है कि यदि धर्म परिवर्तन जैसा गंभीर आरोप 2021 में हुआ था, तो शिकायतकर्ता ने इतने लंबे समय तक चुप्पी क्यों साधे रखी?
क्या यह मामला वास्तव में किसी धार्मिक गतिविधि से जुड़ा है या नौकरी न मिलने की नाराजगी के चलते व्यक्तिगत बदले की कार्यवाही है।
कानूनी प्रक्रिया पर उठते सवाल
उत्तर प्रदेश में धर्म परिवर्तन को लेकर स्पष्ट कानून हैं। इसके तहत: जबरन, लालच, धोखे या दबाव देकर धर्म परिवर्तन कराना अपराध है।
परंतु, किसी प्रेरणा, भाषण, किताब या संवाद को जबरन धर्म परिवर्तन मानना कठिन है जब तक कोई प्रत्यक्ष पीड़ित सामने न आए।
यहां सवाल उठता है कि क्या प्रशासन ने मौलाना शब्बीर की गिरफ्तारी से पहले पर्याप्त साक्ष्य जुटाए थे।या यह सिर्फ तहरीर के आधार पर की गई एकतरफा कार्रवाई है।
शिक्षा संस्थानों को राजनीतिक अखाड़ा बनाना दुखद
मौलाना शब्बीर अहमद को इलाके में एक शिक्षाविद और समाजसेवी के रूप में जाना जाता है। अगर ऐसे व्यक्तियों पर बिना प्रमाण के कार्रवाई की जाती है तो इससे शिक्षा संस्थानों का मनोबल टूटता है। धार्मिक सौहार्द प्रभावित होता है। और समाज में संवेदनशीलता की जगह संदेह और नफरत को बढ़ावा मिलता है।
बताते चलें कि कानून सभी के लिए बराबर है, लेकिन उसका इस्तेमाल सच की खोज के लिए हो, बदले या दबाव के लिए नहीं। प्रशासन को चाहिए कि मामले की निष्पक्ष जांच कराए दोनों पक्षों को सुने और केवल पुख्ता सबूतों के आधार पर कार्रवाई करे।